हमें याद है, जब वालिद साहब को तनख़्वाह मिलती थी तो सब से पहले बनिए का हिसाब होता था। इस दिन का हम बहुत शिद्दत से इंतेज़ार करते थे, माँ के साथ जाते थे, उसने उर्दू में हमारा खाता लिखा होता था, वो एक एक चीज़ काटता और रक़म करता। माँ फिर अपने छोटे से पर्स से, जो कभी सुनार की दुकान से उन्हें बालियों के साथ मिला था, पैसे निकालतीं और हिसाब चूत्ता करतीं।
हिसाब हो जाने के बाद हम एक पल माँ की और देखते और दूसरे पल शीशे के बक्से में क़ैद उस चोक्लेट को देखते, जिसके लिए हम साथ आए थे। माँ पहले तो हमें नज़रंदाज करतीं, हमें लगता कि माँ समझी नहीं कि हम क्या चाहते हैं, अपने मंसूबे साफ़ करने के लिए हम अपनी ऊँगली उस शीशे पे दबाना शुरू कर देते। फिर दुकानदार माँ को देखता, माँ हमें, और हम दुकानदार को। इसी ख़याल में कि किसी को तो तरस आये। यह एक दूसरे को देखने का सिलसिला कुछ और देर चलता, हमारी ऊँगली बस शीशा तोड़ के चोक्लेट तक पहुँच ही जाने वाली होती तो दुकानदार शीशा टूट जाने के डर से हमारे लिए बक्सा खोल देता और हमें एक चोक्लेट थमा देता। हम भी ले लेते। माँ कहती कि नहीं, आप यह हिसाब में लिख लीजिए, और एक और दे दीजिए। इससे बड़ा दरिंदा घर पर हैं, उसके लिए नहीं ले गयी तो वो अलग आसमान सर पे उठा लेगा।
फिर हम बहुत ख़ुश, घर रवाना हो जाते, एक हाथ में चोक्लेट थामे, दूसरे हाथ में माँ का हाथ थामे। माँ हमें डाँटती, दाँत ख़राब होने के नुक़सान बताती, तुम्हें फिरसे कभी साथ ना लाएँगे तक कह देती। फिर हम सहम से जाते कि नहीं फिरसे नहीं करेंगे और माफ़ी माँगने लगते। कहते कि अगली बार शीशे पे ऊँगली नहीं दबाएँगे, ऊपर से ही बताएँगे। माँ फिर चंटा मारने को हाथ हमसे जुदा करतीं और हम घर की और भाग जाते।
घर पहुँचते तो वालिद साहब अब रेडीओ पे कश्मीरी ख़बरें सुन रहे होते, जो पहले वो हिंदी और उर्दू में सुन चुके होते थे। हमें ताज्जुब होता कि आख़िर वो वोहि ख़बरें तीन ज़ुबानों में क्यूँ सुनते हैं? क्या उन्हें किसी ख़बर पढ़ने वाले पर यक़ीं नहीं है? कभी कभी हम यह भी सोचते थे कि उन्होंने कोई ऐसी ख़बर सुन ली है जिस्पे उनको यक़ीं नहीं हो रहा और वोहि वहम दूर करने के लिए वो तीन बार सुन रहे हैं।
ख़ैर, हम इसे नज़रअन्दाज़ करते और बड़े भाई साहब की और रूख करते जो वालिद साहब के डर से किताब खोले बैठे हुए होते। हमें आता देख उन्हें भी किताब बंद करने का बहाना मिल जाता। हम उन्हें उनका चोक्लेट थमाते और बड़े ठाठ के साथ कहते,”तू भी क्या याद रखेगा”
माँ कुछ ही देर में वापिस आती, जो हाथ हम छोड़ के भागे थे उसमें अब सब्ज़ियों भरा लिफ़ाफ़ा होता और यह लिए माँ सीधे रसोई का रूख करती। हमारी रसोई और कमरे की दीवार में एक चोरस होता था, जहाँ दीवार नहीं थी। हमें याद है इसी चौरस से, जब किताब में मन नहीं लगता था, हमें माँ के हाथ दिखते थे, जो कभी आटा गूँध रहे होते, कभी सब्ज़ी काट रहे होते, कभी चाय बना रहे होते, कभी ख़ाली नहीं दिखते थे। और इसी चौरस से वालिद साहब, इस बार ख़ुद, अपनी ज़ुबानी ख़बरों का आख़िरी ब्रॉड्कैस्ट करते थे।
यही करते करते रात का खाना बन जाता, हम फिरसे बहुत ख़ुश, दिन का अख़बार पलंग पर बिछाते, उसी चौरस से पलेटें, माँ हमें थमाती, हम पलंग पर रखते, फिर जब सब हो जाता तो यह देख कर कि यह जो सब सामान हमने रखा है इस चौरस से आया है यह देख कर बहुत ताज़ुब और अपने पर गर्व महसूस होता।माँ आख़िर में पानी ले कर आती, जिसे उस चौरस से सही सलामत गुज़ार देने का भरोसा वो हम पर नहीं करती थीं। ख़ैर, फिर खाना होता था और हम उसी चौरस से वोहि सब रसोई में फिरसे पहुँचा देते थे जो हमने कुछ देर पहले इस तरफ़ लाया होता था।
फिर पूरे महीने ऐसा ही चलता, बीच में एक दो दफ़ा गोश्त बनाया जाता, वो लेने हम वालिद साहब ले साथ जाते थे। वहाँ हम अपना हाथ अपनी जेब में ही रखते थे, वहाँ ऊँगलियाँ काट जाने का डर होता था जो बनिए की दुकान में नहीं था। पर महीना ख़त्म होते होते बात खिचड़ी और आलू की सब्ज़ी तक पहुँच जाती थी। हम बहुत दिल से फिर महीना चड़ने का इंतेज़ार करने लगते कि माँ के साथ जायेंगे और इस बार कोई नयी चीज़ पर ऊँगली धँसा देंगे, फिर अगले दिन स्कूल में लंच के वकफ़े के वक़्त बहुत लुत्फ़ से सब दोस्तों को दिखाते हुए खायेंगे।
अगले दिन हम स्कूल गये, बहुत ख़ुश, कि आज चोक्लेट खायेंगे जो हमने बचा कर किताबों के साथ बस्ते में शाम से ही बाँध लिया था। उन दिनों कुछ यूँ था कि, हम सब बच्चे अपने रोल नम्बरों के हिसाब से बिठाए जाते थे, इसी अमल से हमें एक लड़की के साथ बैठने का तजुरबा हुआ। हम बेंच के बिलकुल दायीं तरफ़ अपने आप को किसी तरह बिठा लेते थे और वो बिलकुल बायीं तरफ़, बीच में इतनी जगह ख़ाली रह जाती थी कि एक स्कूटर गुज़र जाये।
ख़ैर।
जैसे ही पिरीयड ख़त्म होते थे तो हम दोनों दायीं और बायीं ओर से बेंच से फ़रार हो अपने अपने दोस्तों में गुल मिल जाते थे, उस दिन कुछ यूँ हुआ कि हमारे दोस्त जिनको स्कूली विषयों के अलावा और भी बहुत से विषयों का इल्म था, उनसे हमें पता चला कि प्रेम की बुनियाद चोक्लेट ही होती है। उन्होंने अपने मोहल्ले में एक लड़के को, एक लड़की को चोक्लेट देते हुए देखा था और जाते जाते, लड़की ने उस लड़के को फ़्लाइइंग किस से नवाज़ा था। हम बहुत ख़ुश, कि वाह यह तो घाटे का सौदा बिलकुल नहीं है। आज तो हमारे पास चोक्लेट भी है।
फिर क्लास शुरू हुई और फिर हमने बेंच का एक छोर पकड़ लिया।
लंच के वकफ़े में हमें पहले अपने बड़े भाई साहब के पास जाना होता था, माँ जेब ख़र्चा उनको थमातीं थी और पहले तो हमें उन्हें ढूँढना पड़ता था, फिर जो भी चीज़ ली जाती उसे आधा आधा खाना होता था। उस दिन हम देख रहे हैं कि बड़े भाई साहब बहुत खिल रहे हैं, साथ ही में एक मोहतरमां खड़ी हैं और दोनों एक ही प्लेट से पेस्ट्री खा रहे हैं, एक चम्मच वो उठा रहीं हैं, एक भाई साहब उठा रहे हैं। हम दूर खड़े दोनों का यह खेल देख कर अपने भाई साहब के लिए ख़ुश तो बहुत हुए पर बूखे आदमी का महज़ब तो रोटी ही होता है ना, हमारी ख़ुशी को बूख ने बढ़ने नहीं दिया और हम भाई साहब के सामने से गुज़रे, ताकि वो देखें और उन्हें याद आए की दुनिया में उनका एक बूखा भाई भी है। उन्होंने ने हमें देखा और नज़रंदाज कर दिया। हमें लगा कि शायद पहचाना ना हो, हम फिरसे उनके सामने से गुज़रे, इस बार तो उन्होंने हमारी और देखा तक नहीं। पहले हमें इतना यक़ीन नहीं था पर उस दिन हमें यक़ीन हो गया कि बड़े भाई किसी के सगे नहीं होते।
ख़ैर, हम क्लास की और चल दिये, ग़ुस्से से लाल, दोखादडी के शिकार, अपने बेंच पर बैठ गये इसी सोच में की माँ को क्या क्या शिकायत लगायी जा सकती है ताकि शाम को भाई साहब को ज़ायद नहीं तो एक थप्पड़ तो नसीब हो। हम इसी सोच में गर्क थे कि हमें लगा कि कोई हमारे पास आ कर बैठा है, हमने नज़र उठाई तो देखा कि वो दूर, क्षितिज के परे, बादलों के पीछे, बेंच के उस पार बैठी हुई है।
उसको देख कर हम खाँसने लगे, खाँसी ऐसी कि फेफडों से सब पुरानी बलगम बाहर आ गयी, आँखों के आगे अंधेरा सा छा गया, सब बाहर आ गया, बस मौत नहीं आयी।
उसने अपनी पानी की बोतल हमारी ओर की, हमने पानी पिया तो आँखों के सामने से कुछ अंधेरा हटा।
फिर हमने बोतल वापिस कर दी।
बोतल वापिस लाते हुए उसने कहा कि, “तुम हमसे डरते क्यूँ हो?”
हमारे फ़ेंफड़ों से फिर सारी की सारी साँस एक पल में बाहर निकल आयी और हमने हसने की कोशिश की जो हम जानते हैं की नाकामयाब ही रही होगी।
कभी बोलते नहीं हो।
मुँह में ज़ुबान है, या खा गए?
यह खाने वाली बात हमारे दिल पे तीर सी लगी।
हमने बोलने के लिए मुँह खोला, पर कुछ नहीं निकला
अ…ब…ज…
फिर उसने पूछा की टिफ़िन में क्या लाए हो?
हमारी नज़रों के सामने अपने बड़े भाई साहब और हमारी होने वाली भाभी की तस्वीर आ गयी जिसमें भाभी जान एक चम्मच पेस्ट्री का भाई साहब को खिला रही हैं और फिर भाई साहब एक चम्मच भाभी जान को, हम फिरसे इन्हीं सोचों में पड़ने ही वाले थे की बम कैसे बनाया जाये, तो उसने ज़ोर से पूछा, लाए हो या नहीं?
हम डर गए, अपने आप को गिरने से बचाने के लिए हमने बेंच को ज़ोर से पकड़ लिया, और हमारे मुँह से निकला नहिन्न्न्नन्न्न्न।
उसने अपने बस्ते से अपना टिफ़िन निकाला और उसी जगह रख दिया जहाँ स्कूटर गुज़रने का रास्ता बना हुआ था, और कहा, हम खा चुके हैं, तुम खा लो।
हमने अपने कांपते हुए हाथों से टिफ़िन खोला, एक दफ़ा उसकी ओर देखा कि कहीं यह रेडीओ पे ख़बर पढ़ने वालों की तरह जूठ नहीं बोल रही, उसने ज़ोर से कहा कि खाओ! फिर हमें यक़ीन हुआ और हम खाने लगे। जैसे तैसे हममें खाना खाया और उसे ड़ब्बा वापिस दे दिया।
ज़ुबान से लँगड़ाता गिरता हुआ एक थैंक यू निकला और उसने कहा, रहने दो, और ड़ब्बा वापिस बस्ते में डाल दिया।
देखा, इतनी भी बुरी नहीं हूँ मैं। तो इतना डरते क्यूँ हो?
इससे पहले कि हम कुछ कहते, क्लास में बच्चे आने लगे थे, देखते ही देखते टीचर भी आ गयीं और फिर से हमने अपना अपना छोर थम लिया।
उस दिन जब छुट्टी हुई तो हम ने जल्दी जल्दी अपने बस्ते से चोक्लेट निकाला और उसे देने के लिए हाथ आगे बढ़ाया, उसने कहा कि क्यूँ?
हमने कहा कि, खा लो, तुम भी क्या याद रखोगी।
हमें बोलते देख कर वो हँसी, चोक्लेट लिया और क्लास से भाग गयी।
हम बहुत ख़ुश, घर जाते हुए दोनों भाई बहुत खिल रहे थे। हमने माँ को कोई शिकायत भी नहीं लगाई और दिमाग़ से बम वम बनाने के इरादे हटा दिये। घर पहुँचे और माँ से पूछने लगे कि डैडी को हर दिन तनख़्वाह क्यूँ नहीं मिलती, जाते तो वो हर रोज़ हैं? माँ ने हमें नज़रंदाज कर दिया। हमें लगा कि शायद सुना नहीं हो। हमने फिरसे पूछा। माँ ने फिरसे नज़रंदाज कर दिया। हमें फिरसे लगा कि शायद वो समझ नहीं पा रही हैं, तो हमने फिरसे पूछा। माँ उठ कर गयी अपना पर्स ले आयीं और धीरे से कहा, जा चोक्लेट ले आ और उसको मत बताना।
हम बहुत खुश।