चौरस

हमें याद है, जब वालिद साहब को तनख़्वाह मिलती थी तो सब से पहले बनिए का हिसाब होता था। इस दिन का हम बहुत शिद्दत से इंतेज़ार करते थे, माँ के साथ जाते थे, उसने उर्दू में हमारा खाता लिखा होता था, वो एक एक चीज़ काटता और रक़म करता। माँ फिर अपने छोटे से पर्स से, जो कभी सुनार की दुकान से उन्हें बालियों के साथ मिला था, पैसे निकालतीं और हिसाब चूत्ता करतीं।

 

हिसाब हो जाने के बाद हम एक पल माँ की और देखते और दूसरे पल शीशे के बक्से में क़ैद उस चोक्लेट को देखते, जिसके लिए हम साथ आए थे। माँ पहले तो हमें नज़रंदाज करतीं, हमें लगता कि माँ समझी नहीं कि हम क्या चाहते हैं, अपने मंसूबे साफ़ करने के लिए हम अपनी ऊँगली उस शीशे पे दबाना शुरू कर देते। फिर दुकानदार माँ को देखता, माँ हमें, और हम दुकानदार को। इसी ख़याल में कि किसी को तो तरस आये। यह एक दूसरे को देखने का सिलसिला कुछ और देर चलता, हमारी ऊँगली बस शीशा तोड़ के चोक्लेट तक पहुँच ही जाने वाली होती तो दुकानदार शीशा टूट जाने के डर से हमारे लिए बक्सा खोल देता और हमें एक चोक्लेट थमा देता। हम भी ले लेते। माँ कहती कि नहीं, आप यह हिसाब में लिख लीजिए, और एक और दे दीजिए। इससे बड़ा दरिंदा घर पर हैं, उसके लिए नहीं ले गयी तो वो अलग आसमान सर पे उठा लेगा।

 

फिर हम बहुत ख़ुश, घर रवाना हो जाते, एक हाथ में चोक्लेट थामे, दूसरे हाथ में माँ का हाथ थामे। माँ हमें डाँटती, दाँत ख़राब होने के नुक़सान बताती, तुम्हें फिरसे कभी साथ ना लाएँगे तक कह देती। फिर हम सहम से जाते कि नहीं फिरसे नहीं करेंगे और माफ़ी माँगने लगते। कहते कि अगली बार शीशे पे ऊँगली नहीं दबाएँगे, ऊपर से ही बताएँगे। माँ फिर चंटा मारने को हाथ हमसे जुदा करतीं और हम घर की और भाग जाते।

 

घर पहुँचते तो वालिद साहब अब रेडीओ पे कश्मीरी ख़बरें सुन रहे होते, जो पहले वो हिंदी और उर्दू में सुन चुके होते थे। हमें ताज्जुब होता कि आख़िर वो वोहि ख़बरें तीन ज़ुबानों में क्यूँ सुनते हैं? क्या उन्हें किसी ख़बर पढ़ने वाले पर यक़ीं नहीं है? कभी कभी हम यह भी सोचते थे कि उन्होंने कोई ऐसी ख़बर सुन ली है जिस्पे उनको यक़ीं नहीं हो रहा और वोहि वहम दूर करने के लिए वो तीन बार सुन रहे हैं।

 

ख़ैर, हम इसे नज़रअन्दाज़ करते और बड़े भाई साहब की और रूख करते जो वालिद साहब के डर से किताब खोले बैठे हुए होते। हमें आता देख उन्हें भी किताब बंद करने का बहाना मिल जाता। हम उन्हें उनका चोक्लेट थमाते और बड़े ठाठ के साथ कहते,”तू भी क्या याद रखेगा”

 

माँ कुछ ही देर में वापिस आती, जो हाथ हम छोड़ के भागे थे उसमें अब सब्ज़ियों भरा लिफ़ाफ़ा होता और यह लिए माँ सीधे रसोई का रूख करती। हमारी रसोई और कमरे की दीवार में एक चोरस होता था, जहाँ दीवार नहीं थी। हमें याद है इसी चौरस से, जब किताब में मन नहीं लगता था, हमें माँ के हाथ दिखते थे, जो कभी आटा गूँध रहे होते, कभी सब्ज़ी काट रहे होते, कभी चाय बना रहे होते, कभी ख़ाली नहीं दिखते थे। और इसी चौरस से वालिद साहब, इस बार ख़ुद, अपनी ज़ुबानी ख़बरों का आख़िरी ब्रॉड्कैस्ट करते थे।

 

यही करते करते रात का खाना बन जाता, हम फिरसे बहुत ख़ुश, दिन का अख़बार पलंग पर बिछाते, उसी चौरस से पलेटें, माँ हमें थमाती, हम पलंग पर रखते, फिर जब सब हो जाता तो यह देख कर कि यह जो सब सामान हमने रखा है इस चौरस से आया है यह देख कर बहुत ताज़ुब और अपने पर गर्व महसूस होता।माँ आख़िर में पानी ले कर आती, जिसे उस चौरस से सही सलामत गुज़ार देने का भरोसा वो हम पर नहीं करती थीं। ख़ैर, फिर खाना होता था और हम उसी चौरस से वोहि सब रसोई में फिरसे पहुँचा देते थे जो हमने कुछ देर पहले इस तरफ़ लाया होता था।

 

फिर पूरे महीने ऐसा ही चलता, बीच में एक दो दफ़ा गोश्त बनाया जाता, वो लेने हम वालिद साहब ले साथ जाते थे। वहाँ हम अपना हाथ अपनी जेब में ही रखते थे, वहाँ ऊँगलियाँ काट जाने का डर होता था जो बनिए की दुकान में नहीं था। पर महीना ख़त्म होते होते बात खिचड़ी और आलू की सब्ज़ी तक पहुँच जाती थी। हम बहुत दिल से फिर महीना चड़ने का इंतेज़ार करने लगते कि माँ के साथ जायेंगे और इस बार कोई नयी चीज़ पर ऊँगली धँसा देंगे, फिर अगले दिन स्कूल में लंच के वकफ़े के वक़्त बहुत लुत्फ़ से सब दोस्तों को दिखाते हुए खायेंगे।

 

अगले दिन हम स्कूल गये, बहुत ख़ुश, कि आज चोक्लेट खायेंगे जो हमने बचा कर किताबों के साथ बस्ते में शाम से ही बाँध लिया था। उन दिनों कुछ यूँ था कि, हम सब बच्चे अपने रोल नम्बरों के हिसाब से बिठाए जाते थे, इसी अमल से हमें एक लड़की के साथ बैठने का तजुरबा हुआ। हम बेंच के बिलकुल दायीं तरफ़ अपने आप को किसी तरह बिठा लेते थे और वो बिलकुल बायीं तरफ़, बीच में इतनी जगह ख़ाली रह जाती थी कि एक स्कूटर गुज़र जाये।

ख़ैर।

जैसे ही पिरीयड ख़त्म होते थे तो हम दोनों दायीं और बायीं ओर से बेंच से फ़रार हो अपने अपने दोस्तों में गुल मिल जाते थे, उस दिन कुछ यूँ हुआ कि हमारे दोस्त जिनको स्कूली विषयों के अलावा और भी बहुत से विषयों का इल्म था, उनसे हमें पता चला कि प्रेम की बुनियाद चोक्लेट ही होती है। उन्होंने अपने मोहल्ले में एक लड़के को, एक लड़की को चोक्लेट देते हुए देखा था और जाते जाते, लड़की ने उस लड़के को फ़्लाइइंग किस से नवाज़ा था। हम बहुत ख़ुश, कि वाह यह तो घाटे का सौदा बिलकुल नहीं है। आज तो हमारे पास चोक्लेट भी है।

 

फिर क्लास शुरू हुई और फिर हमने बेंच का एक छोर पकड़ लिया।

 

लंच के वकफ़े में हमें पहले अपने बड़े भाई साहब के पास जाना होता था, माँ जेब ख़र्चा उनको थमातीं थी और पहले तो हमें उन्हें ढूँढना पड़ता था, फिर जो भी चीज़ ली जाती उसे आधा आधा खाना होता था। उस दिन हम देख रहे हैं कि बड़े भाई साहब बहुत खिल रहे हैं, साथ ही में एक मोहतरमां खड़ी हैं और दोनों एक ही प्लेट से पेस्ट्री खा रहे हैं, एक चम्मच वो उठा रहीं हैं, एक भाई साहब उठा रहे हैं। हम दूर खड़े दोनों का यह खेल देख कर अपने भाई साहब के लिए ख़ुश तो बहुत हुए पर बूखे आदमी का महज़ब तो रोटी ही होता है ना, हमारी ख़ुशी को बूख ने बढ़ने नहीं दिया और हम भाई साहब के सामने से गुज़रे, ताकि वो देखें और उन्हें याद आए की दुनिया में उनका एक बूखा भाई भी है। उन्होंने ने हमें देखा और नज़रंदाज कर दिया। हमें लगा कि शायद पहचाना ना हो, हम फिरसे उनके सामने से गुज़रे, इस बार तो उन्होंने हमारी और देखा तक नहीं। पहले हमें इतना यक़ीन नहीं था पर उस दिन हमें यक़ीन हो गया कि बड़े भाई किसी के सगे नहीं होते।

 

ख़ैर, हम क्लास की और चल दिये, ग़ुस्से से लाल, दोखादडी के शिकार, अपने बेंच पर बैठ गये इसी सोच में की माँ को क्या क्या शिकायत लगायी जा सकती है ताकि शाम को भाई साहब को ज़ायद नहीं तो एक थप्पड़ तो नसीब हो। हम इसी सोच में गर्क थे कि हमें लगा कि कोई हमारे पास कर बैठा है, हमने नज़र उठाई तो देखा कि वो दूर, क्षितिज के परे, बादलों के पीछे, बेंच के उस पार बैठी हुई है।

 

उसको देख कर हम खाँसने लगे, खाँसी ऐसी कि फेफडों से सब पुरानी बलगम बाहर आ गयी, आँखों के आगे अंधेरा सा छा गया, सब बाहर गया, बस मौत नहीं आयी।

 

उसने अपनी पानी की बोतल हमारी ओर की, हमने पानी पिया तो आँखों के सामने से कुछ अंधेरा हटा।

 

फिर हमने बोतल वापिस कर दी।

 

बोतल वापिस लाते हुए उसने कहा कि, “तुम हमसे डरते क्यूँ हो?”

 

हमारे फ़ेंफड़ों से फिर सारी की सारी साँस एक पल में बाहर निकल आयी और हमने हसने की कोशिश की जो हम जानते हैं की नाकामयाब ही रही होगी।

 

कभी बोलते नहीं हो।

मुँह में ज़ुबान है, या खा गए?

 

यह खाने वाली बात हमारे दिल पे तीर सी लगी।

हमने बोलने के लिए मुँह खोला, पर कुछ नहीं निकला

फिर उसने पूछा की टिफ़िन में क्या लाए हो?

 

हमारी नज़रों के सामने अपने बड़े भाई साहब और हमारी होने वाली भाभी की तस्वीर गयी जिसमें भाभी जान एक चम्मच पेस्ट्री का भाई साहब को खिला रही हैं और फिर भाई साहब एक चम्मच भाभी जान को, हम फिरसे इन्हीं सोचों में पड़ने ही वाले थे की बम कैसे बनाया जाये, तो उसने ज़ोर से पूछा, लाए हो या नहीं?

 

हम डर गए, अपने आप को गिरने से बचाने के लिए हमने बेंच को ज़ोर से पकड़ लिया, और हमारे मुँह से निकला नहिन्न्न्नन्न्न्न

 

उसने अपने बस्ते से अपना टिफ़िन निकाला और उसी जगह रख दिया जहाँ स्कूटर गुज़रने का रास्ता बना हुआ था, और कहा, हम खा चुके हैं, तुम खा लो।

 

हमने अपने कांपते हुए हाथों से टिफ़िन खोला, एक दफ़ा उसकी ओर देखा कि कहीं यह रेडीओ पे ख़बर पढ़ने वालों की तरह जूठ नहीं बोल रही, उसने ज़ोर से  कहा कि खाओ! फिर हमें यक़ीन हुआ और हम खाने लगे। जैसे तैसे हममें खाना खाया और उसे ड़ब्बा वापिस दे दिया।

 

ज़ुबान से लँगड़ाता गिरता हुआ एक थैंक यू निकला और उसने कहा, रहने दो, और ड़ब्बा वापिस बस्ते में डाल दिया।

 

देखा, इतनी भी बुरी नहीं हूँ मैं। तो इतना डरते क्यूँ हो?

 

इससे पहले कि हम कुछ कहते, क्लास में बच्चे आने लगे थे, देखते ही देखते टीचर भी गयीं और फिर से हमने अपना अपना छोर थम लिया।

 

उस दिन जब छुट्टी हुई तो हम ने जल्दी जल्दी अपने बस्ते से चोक्लेट निकाला और उसे देने के लिए हाथ आगे बढ़ाया, उसने कहा कि क्यूँ?

 

हमने कहा कि, खा लो, तुम भी क्या याद रखोगी।

 

हमें बोलते देख कर वो हँसी, चोक्लेट लिया और क्लास से भाग गयी।

 

हम बहुत ख़ुश, घर जाते हुए दोनों भाई बहुत खिल रहे थे। हमने माँ को कोई शिकायत भी नहीं लगाई और दिमाग़ से बम वम बनाने के इरादे हटा दिये। घर पहुँचे और माँ से पूछने लगे कि डैडी को हर दिन तनख़्वाह क्यूँ नहीं मिलती, जाते तो वो हर रोज़ हैं? माँ ने हमें नज़रंदाज कर दिया। हमें लगा कि शायद सुना नहीं हो। हमने फिरसे पूछा। माँ ने फिरसे नज़रंदाज कर दिया। हमें फिरसे लगा कि शायद वो समझ नहीं पा रही हैं, तो हमने फिरसे पूछा। माँ उठ कर गयी अपना पर्स ले आयीं और धीरे से कहा, जा चोक्लेट ले और उसको मत बताना।

 

हम बहुत खुश।

वोह जो तुम कहते थे

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ किसी का दिल दुखता नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ तर्क-ए-दिल होता नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ बारिशों में लोग भीगते नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ लोग जुल्फों की छाओं में सो जाते हैं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ सब ख़त लिखते हैं कोई कुछ बोलता नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ किसी का कोई पता नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ तुम्हे कोई भी जानता नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ किसी के सर पर कोई क़र्ज़ नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ कोई भी पनाह तलाश करता नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ मकान तो हैं मगर कोई मालिक नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ दरीचे तो हैं मगर परदे नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ आईने तो हैं पर कोई चेहरे नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ घड़ियाँ तो हैं मगर वक़्त चलता नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ मजबूरियां तो हैं मगर दूरियां नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ खताएँ तो हैं मगर सजाएं नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह  जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ कारोबार तो हैं मगर हिसाब नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ शायर तो हैं मगर कोई दर्द नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ माज़ी तो है मगर कोई याद नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जान है जहाँ गुल तो हैं मगर कांटे नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ बस दो शक्स हैं कोई उनके दरमियाँ नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ सब मोजूद हैं किसी की कोई जुस्तजू नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ दरिया तो है मगर कोई किनारा नहीं

मुझे भी ले चलो

वोह जो तुम कहते थे कि मुझे वहाँ जाना है जहाँ तुम तो हो पर तुम हो भी नहीं

कभी जाओ तो मुझे भी ले चलो

 

तो चलो

सुना है कि मुफ्त में बंट रहा है पेट्रोल

तुम भी अगर पैदल चलते हो, तो चलो

 

सुना है कि आज मुफ्त में होगा इलाज सबका

तुम भी अगर अपने मर्ज़ छुपाते हो, तो चलो

 

सुना है कि मह-खानों में आज मुफ्त में पिलाई जायेगी शराब

तुम भी अगर खुद को संभाल नहीं सकते हो, तो चलो

 

सुना है कि आज मुफ्त में  हो रहा है इन्साफ

तुम भी अगर अपने जुर्मों का ए’तिराफ़ नहीं कर सकते हो, तो चलो

 

सुना है कि आज मुफ्त में होगा खुदा का दीदार

तुम भी अगर खुदा में नहीं मानते हो, तो चलो

 

सुना है कि आज मुफ्त में बंट रहे हैं महल

तुम भी अगर घर नहीं जाना चाहते हो, तो चलो

 

सुना है कि आज मुफ्त मैं बंट रहीं हैं क़िताबें

तुम भी अगर भूखे हो, तो चलो

 

सुना है कि आज मुफ्त में बंट रही है मोहब्बतें

तुम भी अगर उस को भुल जाना चाहते हो, तो चलो

मंटो

जाने कब्र में किस हाल में होगा

वोह खून का दब्भा शायद अभी तक उसके रूमाल में होगा

दोज़ख में होगा याँ जन्नत में होगा

जहाँ भी होगा, उसी हाल में होगा

आखरी आह लेते हुए जुबां से कुछ तो निकला होगा

याँ वो दर्द भी उसने ज़हर सा पी लिया होगा

कोठों पे उस दिन कोई न आया होगा

रंडियों का मजमा, काली शलवार पहने उस दिन मस्जिद हो लिया होगा

बस कुछ देर के लिए ही सही, सरहद खुली तो होगी

लाहौर से बम्बई के लिए एक कौआ उड़ा तो होगा

मेहखानों में उस दिन तांता लगा हुआ होगा

और हलाल हलाल गोष्ट उस दिन झटका मिल रहा होगा

आये होंगे कुछ लोग यह भी

उसने जाने से पहले हमारा हसाब तो किया होगा

उस दिन वकील सारे कठगरे में बुलवा लिए गए होंगे

और कसम के लिए उनके हाथों तले उसका एक अफसाना रख दिया गया होगा

कहीं तो फिज़ा चली होगी, कहीं तो इंसानों से भरी एक ट्रेन रुकी होगी

कहीं तो किसी को शराब चडी होगी,कहीं तो खून बहा होगा

कहीं तो कोई औरत रोई होगी, कहीं तो किसी का बुर्का उतरा होगा

कहीं तो कोई औरत कपडे बदल रही होगी, कहीं तो कोई उसे देख रहा होगा

जब उसका जनाज़ा गली से गुज़र रहा होगा

खुदा की हरक़तों का एक एक हिसाब रखा होगा उसने

उस दिन खुदा भी, सिगरेट सुलगाये अपने महल में कभी यहाँ तो कभी वहाँ भटक रहा होगा

कहानी

कहानी

कहानी वो की जिसके बीच में उठ के मैं चला आया था
वो तुमने पूरी नही सुनाई

कहानी वो की जिसमे कुछ अश्क़ तुमने रोके थे और कुछ अश्क़ मैंने
और फिर रुक न पाए थे
वो तुमने पूरी नही सुनाई

कहानी वो की जिसमे तेरा हाथ पकड़ के दुनिया के कईं चक्कर लगाए थे
और फिर तुझे समंदर के बीच छोड़ कर फरार हो गया था
वो तुमने पूरी नही सुनाई

कहानी वो की जिसमे चादर के कपडे के बनाये थे कईं परदे
और फिर भूल गया था की दरवाज़ा बंद किया की नहीं
वो तुमने पूरी नही सुनाई

कहानी वो की जिसमे तुम कहती हो की मेरी इन आँखों में अब वो बात नही
और मैं रूठ के तुमसे चूम लेता हूँ तेरी पलकें
वो तुमने पूरी नही सुनाई

कहानी वो जो पहले सफे में ही ख़तम थी
और मैं लिखता गया नज़्में तेरे काजल से
वो तुमने पूरी नही सुनाई

कहानी वो की जिसमे तुम बहुत खुश हो
और रो देती हो बीच अपनों में
वो तुमने पूरी नही सुनाई

कहानी वो की जिसमे तू बेच आयी थी सब ज़ेवर अपने
और मैं घर पर ही नहीं था
वो तुमने पूरी नहीं सुनाई

कहानी वो की जिसमे मैं भी हूँ और तुम भी हो
और चंद मलाल हैं अपने
वो तुमने पूरी नही सुनाई
वो तुमने पूरी नही सुनाई

आख़री मुलाक़ात

​इस नज़्म का की रूह जाँ निसार अकथर की नज़्म ‘आख़री मुलाक़ात’ से चुराई गयी है। गुस्ताख़ी माफ़।

मत रोको इन्हें पास आने दो 
यह मुझसे मिलने आये हैं
मैं ख़ुद ना जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने दुँधले साये हैं

वो आँखें तेरी अश्क़ भरी
वो दूरी जो मैंने ना भरी
वो छोटा सा एक लम्हा था
पढ़ना बस एक ही कलमा था
दो परदे हल्के-फुल्के से
एक हुजरा बीच बाज़ारों में (room/solace)
कुछ चेहरे रोशनदानों में
वो बूँदे तेरे कानों में
वो इश्क़ किताबी मायनो में

मत रोको इन्हें पास आने दो 
यह मुझसे मिलने आयें हैं

वो नसें भूड़े हाथों में
वो शिकस्त पुरानी बातों मे
वो संदूख पुराने कपड़ों के
वो जाले उम्र के मकडो के
कुछ बातें हैं तरक़ालों की (evenings)
वो दुँध भरी स्यालों की (winters)
कुछ टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें
वो गोल की गयीं तस्वीरें
वो तड़का किसी की रसोई का
एक ख़ुश्बू पूरे मोहल्ले की

मत रोको इन्हें पास आने दो 
यह मुझसे मिलने आएँ हैं

वो रेडीओ माँ के गानो का
वो उधार राशन की दुकानों का
कुछ मारें इम्तहानों की
एक मर्म रोशनी शामों की
एक घूंगरू माँ की पायल का
वो रंग उन गूढ़े बालों का
वो हाथ से बुने स्वेटर में
ना जाने किनती उन लगी 
स्कूल से घर तक आने में 
ना जाने कितनी देर लगी

मत रोको इन्हें पास आने दो 
यह मुझसे मिलने आएँ हैं

वो पीले पन्ने किताबों के
लिखने वाले के जज़्बातों के
वो सूखे हुए गुलाब सभी
वो काली सिहाई
वो धीमी घड़ी
वो ठंडी हवाएँ नयी सोचों की
जीवन के उन मौजों की
उन वादों की, उन यादों की

दो आइयने आमने-सामने हैं 
ड़ूँड रहे अपने मायने हैं

मैं ख़ुद ना जिसे पहचान सकूँ 
कुछ इतने दुँधले साये हैं
मत रोको इन्हें पास आने दो 
कुछ इतने दुँधले साये हैं

इतिहास

इतिहास को ऐसे क्यों सिखाया जाता है?

ऐसे क्यों बताया जाता है?

और भी तो लोग होंगे जिन्होंने देखा होगा इतिहास को

जब वो बच्चा था 

जब वो सच्चा था 

कैसा होगा तब वो

सोचा कभी?
हमने रट लिया है कि सैंतालीस में आज़ाद हुए थे

पर दादा दादी नाना नानी आज भी तकसीम की बात क्यूँ करते हैं?

कभी सच्ची में आज़ाद हुए भी थे या नहीं?

सोचा कभी?
जिसको तुम आज पाकिस्तान कहते हो 

और जिसको हम हिंदुस्तान 

कभी सोचा कि कैसा होगा 

जब तुम ना थे

मैं ना था

और वे तमाम लोग ना थे जिन्हें लकीरें खींचने की आदत है

सोचा कभी?
किताबें पढ़ कर इम्तिहानो से तो छुटकारा पा लिया

पर वो किताबों का क्या जिन्मे असली इतिहास है हमारा

वो मंटो के अफ़साने 

वो इस्मात की गरम हवा

पढ़ना कभी 

महसूस करना

फिर मिलेंगे और बात करेंगे इतिहास की

तुम्हारी

मेरी 

इसकी

उसकी

इस पार की

उस पार की

सोचना कभी

हाँ सोचना

तबदीली

कैसे कहूँ की कुछ नहीं बदला 
आज जब वापस जाता हूँ उस मोहल्ले में 
वो गालियां जो आँखें बंद कर के दौड़ आता था 
अब कुछ छोटी सी लगती हैं

घर वहीँ है

उस घर को घर बनाने वाले भी वहीँ है 
मैं अब वहां नहीं रहता
क्यों नही रहता?

मैं क्या कहूं

वो घर था 
यह होटल के कमरे लगते हैं

वो पौड़ी जिस से कई बार गिरा था 
इस बार उतरने लगा तो एक ख़ौफ़ सा लगा
जो सीडियां तीन छलांगों में खत्म हो जाती थी 
इस बार मैंने गिनी एक एक पौड़ी 

वे पंद्रह हैं
याद रखना.

छत पे चङो तो आज बी मस्जिद दिखती है 
मस्जिद और घर के बीच वो घर उतने ही नज़दीक हैं जितने छोड़ के गए थे.
इतने नज़दीक की ईद पे नसीम, माँ को गोश्त का हिस्सा भी छत से ही देती थी
नसीम ज़िंदा है या नही पता नही, गली से गुज़रा इस दफा तो उसका पोता दिखा था

सीढ़ियों के नीचे हौज था एक ज़माने में, अब नही है
स्कूटर लगाने की जगह नही थी शायद
एक पानी की मोटर दिखती है वहां
अजीब सी आवाज़ है उसकी

नमाज़ इ फज्र से खुलती थी नींद उधर 
यहाँ कुत्ते भोंकते है सुबह सुबह

यहाँ छत से धुएं में डका हुआ एक शहर दीखता है 
वहां गली दिखती थी और नाली

मोहल्ले में तो सब मोहल्लेदार थे
अब बहार निकला तो कोई हिन्दू कोई मुस्लमान हो गया

यह अंधापन अच्छा था या बुरा पता नही
पर यह जो नई आंखें मिली हैं इनको पहले से ही मोतिया है

मैं अंधा बेहतर था

नानी घर ज़यदा दूर नही था उधर से
अब न नानी है न नानू 
पर नानी घर तो है

जो जुबान पर चढ़ा हुआ है

बच्चे हैं मामू के वहां जिनसे मिलने जाता हूँ कभी कभी 
मिलते कहाँ हैं आज कल बच्चे
टीवी बंद करना पड़ता है उसके लिए तो 
आज कल बिजली भी तो नही जाती उतनी जितनी जाय करती थी

नानी जलेबी खिलाती थी दशहरे के दिन
अब खुद ले आतें हैं,कभी भूल भी जातें हैं

यह बदला है

और क्या कहूँ तुमसे की क्या बदला है
हाँ, मोटा था पतला हो गया हूँ
नाटा था लम्बा हो गया हूँ 
दाढ़ी उग आई है वो भी आधी अधूरी
कल दादी के पास गया था उनसे पता चला की लिस्सा हो गया हूँ 

sunday

It rained that morning and made the Sunday afternoon even more monotonous. I went into my study and opened the window. A gentle breeze rushed on to me and caressed my body. I dragged my chair in front of the window and sat face to face with it. It was not long that i realized that along with the ancient smell of the soil the air was carrying something else. Someone was playing old songs on the radio. The music that our times have left behind just like we’ve left behind Pluto out of our solar system, without any prior warning. The music was coming out of a radio, that i knew, a lady after serving lunch to her family is finishing up her chores in the kitchen while listening to it, that I imagined. What I didn’t knew was that which song was playing. If my mother was alive she would have known.

  What rain does to the city is that it washes the city of the unnecessary sounds and magnifies the sounds that needs to be heard. I still remember after rains one afternoon while we were having lunch i heard the distant hoot of the train. I asked mom, ” how come we don’t listen to this hoot everyday?”

No, she said. I hear it everyday child. Mixing the rice and curry on a banana leaf with her right hand she looked at me. You see my child, the train passes everyday making that sound but it does not rain everyday. Does it?

 Then how come I don’t hear it everyday, I asked with an evident sadness.

She said this time while chewing on her food. See my queen, there are all kinds of sounds around us, you will really start to hear them when you will close your eyes, there are good sounds, there are not so good sounds, there are soothing sounds, there are sounds that make you restless. It’s up to you which sounds you want to listen. We don’t listen to these sounds because we are too busy creating our own noises.

She looked at me with the kindness that she always had in her eyes. I burped, and then we both started laughing.

The music was gently entering my ears. If perfume is for nose then music like this is for ears, i thought. I closed my eyes and saw a ball of different colored threads on the back side of my eyelids. That ball of magnificently colored threads was drawing me in like an insolvable puzzle challenges you to make an attempt. The very first sounds that you get aware of when you close your eyes is the chirping of birds, I don’t know why but every time I close my eyes the birds flutter around me for some time, if you are lucky that pigeons live in your attic you may even get to hear their secret conversations that they carry out in the dark. I think they talk about the messages their ancestors used to carry for us and the stories have passed on to them and still being told. And then the wailing of the city begins, someone hammering away at the walls, the sound of overburdened engines, telephone bells, airplanes flying by and with it comes the trembling of the window panes, repressed laughter, loud sneezing, coughing, the imagined sound of someone walking on your rooftop, the ruckus of dogs, some teenager who  passes through the labyrinths of the city pressing horn on his motorcycle, reminding of the Doppler effect. I’ve sorted out most of the threads some blue, some bright red, some white, some black. Now when i look at the ball, it has reduced to the size of a lemon. Now the sounds that i listen are my very own, my breathing, the sound of blood pumping near my temples, the sound of my hair blowing in the wind, the sound of my touch, i am making these sounds unconsciously even i cannot control the loud noises in my brain now. It says some good things, some things that I don’t want to hear. I listened to it for a while and then I looked back at the ball of multicolored threads again. The ball of threads is big again, all the threads that I’ve separated have again merged into that multicolored ball again. I looked at the ball for a while considering the possibility of unraveling again and then I refrained. I stood there in the black vastness between my eyelids and the hollow of my skull looking at the ball for some time and then I slowly walked away.

When I opened my eyes I saw my room filled up with so much light. The air had stopped flowing in and so the music was no more coming in from the window. I stood up and tried to figure out which house it might be coming from. The city got more unfamiliar now as if the houses changed their positions when my eyes were closed. The lady must have completed her chores and might have been taking a nap by now. I pictured her lying down and her children trying to wake her up to tell stories. Then I gave up, as I was about to close the window again the music came filtering in through the moisture laden air. Now I recognized the voice. It was Mukesh singing in his voice which reminds me of wood and honey at the same time. I don’t know why.

“Kai baar yun hi dekha hai yeh jo man ki seema rekha hai man todne Lagta hai…

Anjani raah ke peeche anjani chah ke peeche man daudne Lagta hai..”

I sat back on my chair and faced the music head on till it eventually stopped in the evening and that evening I went to the market to buy a radio set. There I saw a woman with a child holding her hand complaining to the shopkeeper.

Bhaiya sham tak to sahi chal raha tha, kya hua isko. It was working till this evening, what happened to it?

I looked at her, she was wearing a maroon sari with golden border and a worried look on her face. Her daughter was looking at her as she complained to the shopkeeper with a thumb in her mouth and other hand in her mother’s hand.

The shopkeeper told her. Ek do din tak ho jayega. It will be done in one or two days.

She then asked the shopkeeper to promise her to make the radio tip top. The shopkeeper looked at her suspiciously and then took the radio away form her and gave it to one of his worker in his shop.

Ek do din tak dekhna. Come back after one or two days.

Then she left with a look of uncertain emotion on her face. She passed me and I looked her. She was beautiful and tall and a certain air about her which told me that she was not of these times.

Then the shopkeeper asked me, madamji what do you want?

I look at him stupefied and after a pause of about ten seconds. Nothing.. Kuch nahi. Bas yeh radio theek kar dena. Do fix this radio please.

I walked out of his shop and went straight to home. Waiting for next Sunday.

With respect.

Standing on that bridge. A motorcycle stopped, a young lady, newly married stepped down from the back seat and threw a polythene bag pregnant with marigold flowers and pictures of gods and other religious paraphernalia. The bag bursted in mid air and the flowers and other stuff separated from the bag as if in a race to hit the water first. You could see the polythene bag, torn, rotating about the axis of one of its handle like a ballerina in a slow descent. Half an hour ago when he left the house to meet his friends his mother gave him a similar kind of polythene and instructed him to kindly dispose the contents of the polythene with respect into the river. He stood on that bridge, looked down, it was the same river which had swallowed half of the city a month ago, looking down now the emaciated river was nothing but a sea of thirty three crore polythene bags and gods and a few dogs who came looking for food. The phone kept ringing, he didn’t went to meet his friends that day. Something made him to stand there, it was as as if his legs were tied to an invisible anchor and he couldn’t do anything about it. Another scooter stopped a fat man quickly stepped down and lofted a big fat black polythene bag. The descent was silent and somewhat enchanting. It hit the rocks at the bank and the bag exploded. The man was a butcher, out came the wings and pale feet of chickens. An orgy for the dogs, he thought. His polythene bag was hanging on the handle of his motorcycle, he kept looking at it for some good ten minutes. Then he started his motorcycle and started moving towards his home. Some days, going back home made him sad, no specific reason, it was just that the thought of going back home to that same bed, those same people gave him a queer feeling… Just sometimes. He stopped, twenty yards after crossing the bridge and stepped down from the motorcycle. With the polythene in hand he walked towards a dustbin and dropped the bag in it, with respect.